________________
स्वयम्भू-स्तोत्र
• २७
| जिन्होंने अपने अन्तःकरणके कषाय-बन्धनको जीता है--सम्पूर्ण । र क्रोधादिकपायोंका नाशकर अकपायपद एवं जिनपद प्राप्त किया है और (इसीलिये) जो ऋद्धिधारी मुनियोंके-गणधरादिकोंके स्वामी तथा ! महात्माओंके द्वारा वन्दनीय हुए हैं।'
यस्याङ्ग-लक्ष्मी-परिवेश-भिन्न तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश वाह्यं बहु मानसं च
ध्यान-प्रदीपाऽतिशयेन भिन्नम् ॥२॥ 'जिनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यान-प्रदीपके अतिशयसे-परम शुक्लध्यानके तेज-द्वारामें प्रचुर मानस अन्धकार-ज्ञानावरणादि-कर्मजन्य आत्माका समस्त । * अज्ञानान्धकार-उसी प्रकार नाशको प्राप्त हुआ जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे (लोकमें फैला हुआ) अन्धकार भिन्न-विदीर्ण होकर नष्ट हो जाता है।'
स्व-पक्ष-सोस्थित्य-मदाऽवलिप्ता वासिंह-नादैविमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदागण्डा
गजा यथा केसरिणो* निनादैः ॥३॥ __ 'जिनके प्रवचनरूप-सिंहनादोंको सुनकर अपने मत-पक्षकी ।
सुस्थितिका घमण्ड रखनेवाले-उसे ही निर्बाध एवं अकाट्य समझ! कर मदोन्मत्त हुए-प्रवादिजन ( परवादी) उसी प्रकारसे निर्मद हुए
* 'केशरिणो' इति पाठान्तरम् ।