________________
२४
स्वयम्भू स्तोत्र
समझनी चाहिये जिनका अन्य वृषभादि तीर्थङ्करोंके स्तवनों में उल्लेख हुआ अथवा प्रदर्शन किया गया है। और उनका शासनतीर्थ उन सब गुणोंसे विशिष्ट है जो अन्य जैन तीर्थङ्करों के शासनमें निर्दिष्ट हुए हैं। तीर्थङ्कर नामों के सार्थक, अन्वयार्थक अथवा गुणार्थक होने से एक तीर्थङ्करका जो नाम है वह दूसरोंका विशेषण अथवा गुणार्थक पद हो जाता है और इसलिए उन्हें भी विशेषंरणपदोंमें संगृहीत किया गया है । भक्तियोग और स्तुति प्रार्थनादि - रहस्य
१
१
जैनधर्म अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान हैं— कोई भेद नहींसबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है । प्रत्येक स्वभावसे ही इसी दृष्टिको लेकर द्विसंधानादि चतुर्विंशतिसंधान - जैसे काव्य रचे गए हैं । चतुर्विंशतिसंधानको पं० - जगन्नाथने एक ही पद्यमें रचा है, जिसमें २४ तीर्थङ्करोंके नाम आ गए हैं, और एक एक तीर्थङ्कर की अलग अलग स्तुति के रूपमें उसकी २४ व्याख्याएं की गई हैं और २५वीं व्याख्या समुच्चय स्तुति के रूपमें है ( देखो, वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह पृ० ७८ ) । हाल में 'पंचवटी' नामका एक ऐसा ही ग्रन्थ मुझे जयपुर से उपलब्ध हुआ है जिसके प्रथम स्तुतिपद्य में २४ तीर्थङ्करोंके नाम श्रा गए हैं और संस्कृत व्याख्यामें उन नामोंके अर्थको वृषभजिनके सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए जितादिशेष तीर्थ के सम्बन्ध में भी घटित कर लेने की बात कही गई है । वह पद्य इस प्रकार है
१
श्रीधर्मोवृषभोऽभिनन्दन अरः पद्मप्रभः शीतल : शान्तिः संभव वासुपूज्य अजितश्चन्द्रप्रभः सुव्रतः । श्रेयान् कुन्थुरनंतवी र विमलः श्रीपुष्पदन्तो नमिः श्रीनेमिः सुमतिः सुपार्श्वजिनराट् पार्श्वे मलिः पातु वः ॥ १ ॥