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१४.
स्वयम्भूस्तोत्र का विभव ( ऐश्वर्य ) प्राप्त हुआ था और उनका तीर्थ ( शासन) भी संसार-समुद्र से भयभीत प्राणियोंको पार उतारनेके लिए प्रधान मार्ग बना था।
(२०) मुनिसुव्रत-जिन मुनियोंकी परिषद् -गणधरादिक ज्ञानियोंकी महती सभा (समवरण) में-उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि नक्षत्रोंके समूहसे परिवेष्टित चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है। उनका शरीर तपसे उत्पन्न हुई तरुण मोरके कण्ठवर्ण-जैसी आभासे उसी प्रकार शोभित था जिस प्रकार कि चन्द्रमाके परिमण्डलकी दीप्ति शोभती है। साथ ही, वह चन्द्रमाकी दीप्तिके समान निर्मल शुक्ल रुधिरसे युक्त, अति सुगंधित, रजरहित, शिवस्वरूप (स्व-पर कल्याणमय ) तथा अति आश्चर्यको लिये हुए था। उनका यह वचन कि 'चर और अचर जगत् प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणको लिये हुए है'-प्रत्येक समयमें ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश )स्वरूप है-सर्वज्ञताका द्योतक है। वे अनुपम योगबलसे पापमलरूप आठों कलंकोंको (ज्ञानावरणादि कर्मोको ) भस्मीभूत करके संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यको-परम अतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको-प्राप्त हुए थे।
(२१) नमि-जिनमें विभवकिरणोंके साथ केवलज्ञान-ज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकन्तवादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए थे जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत (जुगनू) होते हैं । उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तात्मक तत्त्व
का गंभीर रूप एक ही कारिका विधेयं वार्य इत्यादिमें . इतने अच्छे ढंगसे सूत्ररूपमें दिया है कि उसपर हजारोंलाखों श्लोंकों की व्याख्या लिखी जा सकती है। उन्होंने परम करूणाभावसे सम्पन्न होकर अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धि के लिये