Book Title: Swayambhu Stotram
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 197
________________ समन्तभद्र भारता बहुगुण-सम्पदसकलं परमतमपि मधुर-वचन-विन्यास-कलम् । नय-भक्तयवतंस-कलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ ८॥ (१४३) 'हे वीर जिनदेव ! जो.परमता है आपके अनेकान्त-शासनसे भिन्न दूसरोंका शासन है-वह मधुर वचनोंके विन्याससे-कानोंको प्रिय मालूम देनेवाले वाक्योंकी रचनासे-मनोज्ञ होता हुआ भी--प्रकट रूपमें मनोहर तथा रुचिकर जान पड़ता हुआ भी-बहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थवादिता और पर-हितप्रतिपादनादि-रूप बहुतसे गुण हैं उनकी शोभासे रहित है—सर्वथैकान्तवादका अाश्रय लेनेके कारण वे शोभन गुण उममें नहीं पाये जाते-और इस लिए वह यथार्थ वस्तुके निरूपणादिमें असमर्थ होता हुअा वास्तवमें अपूर्ण, सबाध तथा जगत् के लिए अकल्याणकारी है। किन्तु आपका मत-शासन-नयोंके भङ्ग-स्यादस्ति-नास्त्यादि-रूप अलंकारोंसे अलंकृत है अथवा नयोंकी भक्ति-उपासनारूप आभूषणको प्रदान ! करता है अनेकान्तवादका आश्रय लेकर नयोके सापेक्ष व्यवहारकी । सुन्दर शिक्षा देता है और इस तरह-यथार्थवस्तु-तत्त्वके निरूपण , और परहित-प्रतिपादनादिमें समर्थ होता हुआ-बहुगुण-सम्पत्तिसे युक्त है, ( इसीसे ) पूर्ण है और समन्तभद्र है-मब अोरसे भद्ररूप, ! निर्वाधतादि-विशिष्ट शोभासम्पन्न एवं जगतके लिए कल्याणकारी है।' इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति-सकलतार्किकचक्रचूडामणि-श्रद्धागुणज्ञतादिसातिशयगुणगणविभूपित-सिद्धसारस्वत-स्वामिममन्तभद्राचार्य विरचितं चतुर्विंशतिजिनस्तवनात्मकं स्वयम्भूस्तोत्रं समाप्तम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206