________________
स्वयम्भू-स्तोत्र
' सर्व - भाषाओं में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवसरण सभा में व्याप्त हुआ आपका श्रीसम्पन्न - सकलार्थ के यथार्थ प्रतिपादनकी शक्तिसे युक्त – वचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त संतुष्ट करता है जिस प्रकार कि अमृत पान | अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विनर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ||१३|
.६५
' ( हे अरजिन ! ) आपकी अनेकान्तदृष्टि ( अनेकान्तात्मक-मतप्रवृत्ति) मती - सच्ची है, विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह शून्यरूप असत है* । अतः जो कथन अनेकान्त - दृष्टि से रहित - एकान्त दृष्टिको लिये हुए - है वह सब मिथ्या है; क्योंकि वह अपना ही -- सत्-सत् आदिरूप एकान्तमतका ही - घातक है— अनेकान्तके विना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती ।'
ये पर स्वलितोनिद्राः स्व - दोषेभ - निमीलनाः ।
तपस्विनस्ते किं कुयु पात्रं त्वन्मत- श्रियः || १४ ||
"
'जो ( एकान्तवादी जन ) परमें— अनेकान्तमें-- विरोधादि दोप
देखने के लिए उन्निद्र - जागृत-रहते हैं और अपने में - सत् यदि एकान्तमें- दोषोंके प्रति गज-निमीलनका व्यवहार करते हैं - उन्हें देखते हुए भी न देखनेका डौल बनाते हैं - वे बेचारे क्या करें ?उनसे स्वपत्नका साधन और परपक्षका दूषण बन नहीं सकता । ( क्योंकि ) पके अनेकान्त-मतकी ( यथार्थ वस्तुस्वरूप - विवेचकत्त्व - लक्षणा )
* यह सब कैसे है, इस विषयको विशेषरूपसे जानने के लिये इसी स्वयम्भू-स्त्रोत्र-गत सुमति-जिन और सुविधि - जिनके स्तवनोको अनुवाद - सहित
देखना चाहिए।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀