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स्वयम्भू स्तोत्र
ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं । भवानेवाsत्याक्षीन च विकृत-वेषोपधिरतः । ११९॥
यह परिग्रह त्याग उन साधुओं से नहीं बनता जो प्राकृतिकवेषके विरुद्ध विकृत वेष तथा उपाधिमें रत रहते हैं । और यह त्याग उस तृष्णा नदीको सुखानेके लिये ग्रैष्मकालीन सूर्य के समान हैं, जिसमें परिश्रमरूपी जल भरा रहता है और अनेक प्रकार के भयकी लहरें उठा करती है ।
earth मिटने पर जब बन्धनोंका ठीक भान हो जाता है, शत्रु-मित्र एवं हितकर हितकरका भेद साफ नजर आने लगता है और बन्धनोंके प्रति अरुचि बढ़ जाती है तथा मोक्ष - प्राप्तिकी इच्छा तीव्र से तीव्रतर हो उठती है तब उस मुमुक्षुके सामने चक्रवर्तीका साहा साम्राज्य भी जीर्ण तृणके समान हो जाता है, उसे उसमें कुछ भी रस अथवा सार मालूम नहीं होता, और इसलिये वह उससे उपेक्षा धारण कर - बधू वित्तादि सभी सुखरूप समझी जानेवाली सामग्री एवं विभूतिका परित्याग कर - जंगलका रास्ता लेता है और अपने ध्येयकी सिद्धि के लिये अपरिग्रहादि व्रतस्वरूप 'गम्बरी' जिनदीक्षाको अपनाता हैमोक्षकी साधना के लिये निर्ग्रन्थ साधु बनता है। परममुमुक्षुके इसी भाव एवं कर्तव्यको श्रीवृषभाजन और अरजिनकी स्तुतिके निम्न पद्योंमें समाविष्ट किया गया है :
विहाय य: सागर - वारिवाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ||३||