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स्वयम्भू-स्तोत्र
अस्तित्व रखता है- प्रकाश और अन्धकार दोनों पुद्गलकी पर्याय हैं, एक पर्यायके अभाव में दूसरी पर्यायकी स्थिति बनी रहती है, वस्तुका सर्वा प्रभाव नहीं होता ।'
विधिर्निषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ .
विवक्षया मुख्य गुण - व्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं
मति - प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ! ||५|| (२५)
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( वास्तव में) विधि और निषेध - - अस्तित्व और नास्तित्व-- दोनों कथंचित् इष्ट हैं - सर्वथा रूपसे मान्य नहीं । विवक्षासे उनमें मुख्यitrat व्यवस्था होती है— उदाहरण के तौरपर द्रव्यदृष्टिसे जब नित्यत्व प्रधान होता है तो पर्यायदृष्टिका विषय ग्रनित्यत्व गौण होजाता है और पर्यायदृष्टि-मूलक ग्रनित्यत्व जत्र मुख्य होता है तब द्रव्यदृष्टिका विय नित्यत्व गौरा हो जाता है ।
इस प्रकार से हे सुमति जिन ! आपका यह तत्त्व - प्रणयन है । इस तत्व प्रणयन के द्वारा आपकी स्तुति करनेवाले मुझ स्तोता (उपासक) की मतिका उत्कर्ष होवे - उसका पूर्ण विकास होवे ।
भावार्थ-यहाँ स्वामी समन्तभद्रने सुमतिदेवका, उनके मति -प्रवेकको लक्ष्य में रखकर, स्तवन करके यह भावना की है कि उस प्रकारके मति'प्रवेकका -- ज्ञानोत्कर्षका - मेरे ग्रात्मामें भी ग्राविर्भाव होवे । सो ठीक ही है, जो जैसा बनना चाहता है वह तद्गुण - विशिष्टकी उपासना किया करता है, र उपासना में यह शक्ति है कि वह भव्य उपासकको तद्र । द्र ूप बनाती है; जैसे तेलसे भीगी हुई बत्ती जब दीपककी उपासना करती हैतप होनेके लिये जब पूर्ण तन्मयता के साथ दीपकका श्रालिङ्गन करती
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