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स्वयम्भू-स्तोत्र "
| होती है; क्योंकि वस्तु-स्थिति ऐसी ही है-इन्द्रिय-विषयोंको जितना । 20 अधिक सेवन किया जाता है उतनी ही अधिक उनके और सेवनकी तृष्णा
बढ़ती रहती है । सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समयके । लिये) शरीरके सन्तापको मिटानेमें निमित्तमात्र हैं-तृष्णारूप अग्निज्वालाओंको शान्त करनेमें समर्थ नहीं होते। यह सब जानकर हे
आत्मवान् । इन्द्रियविजेता भगवन् !-आप बिषय-सौख्यसे परा । मुख हुए हैं-आपने चक्रवर्तित्वकी सम्पूर्ण विभूतिको हेय समझते हुए । उनसे मुख मोड़कर अपना पूर्ण आत्मविकास सिद्ध करनेके लिये स्वयं ही वैराग्य लिया है-जिनदीक्षा धारण की है।'
बाह्यं तपः परम-दुश्वरमाऽऽचरस्त्वमाऽऽध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुष-द्वयमुत्तरस्मिन् । ध्यान-द्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥३॥
(वैराग्य लेकर) आपने आध्यात्मिक तपकी-अात्मध्यानकीपरिवृद्धिके लिये परमदुश्चर बाह्य नप-अनशादिरूप घोर-दुद्धर तपमें श्चरण किया है । और (इस बाह्यतपश्चरणको करते हुए) आप आत
रौद्र-रूप दो कलुषित (खोटे) ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती-धर्म्य और शुक्ल नामक-दो सातिशय (प्रशस्त) ध्यानोंमें प्रवृत्त हुए हैं।'
हुत्वा स्व-कर्म-कटुक-प्रकृतीश्चतस्रो
रत्नत्रयाऽतिशय-तेजसि जात-वीर्यः । । उत्तरेस्मिन्' इति पाठान्तरम् ।