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स्वयम्भूस्तोत्र न होना-जैसी जिन बातोंको पूर्ण विकासके लिये आवश्यक बतलाया गया है उनका और उनकी इस आवश्यकताका परिज्ञान ज्ञानयोगसे सम्बन्ध रखता है; और उनपर अमल करना तथा उन्हें अपने जीवनमें उतारना यह कर्मयोगका विषय है। साथ ही, 'अपने दोषोंके मूलकारणको अपने ही समाधितेजसे भस्म . किया जाता है' यह जो विधिवाक्य दिया गया है इसके मर्मको समझना, इसमें उल्लिखिंत दोषों, उनके मूलकारणों, समाधितेज और उसकी प्रक्रियाको मालूम करके अनुभवमें लाना, यह सब ज्ञानयोगका विषय है और उन दोषों तथा उनके कारणोंको उस प्रकारसे भस्म करनेका जो प्रयत्न, अमल अथवा अनुष्ठान है वह सब कर्मयोग है। इसी तरह अन्य स्तवनोंके ज्ञानयोगमेंसे भी कर्मयोग-सम्बन्धी बातोंका विश्लेषण करके उन्हें अलगसे समझ लेना चाहिये, और यह बहुत कुछ सुख-साध्य है। इसीसे उन्हें फिरसे यहां देकर प्रस्तावनाको विस्तार देनेकी जरूरत नहीं समझी गई। हाँ, स्तवन-कर्मको छोड़कर, कर्मयोगका उसके आदि-मध्य और अन्तकी दृष्टिसे एक संक्षिप्त सार यहां दे देना उचित जान पड़ता है और वह पाठकोंके लिए विशेष हितकर तथा रुचिकर होगा। अतः सारे ग्रन्थका दोहन एवं मथन करके उसे देनेका
आगे प्रयत्न किया जाता है। ग्रन्थके स्थलोंकी यथावश्यक सूचना ब्रेकटके भीतर पद्याङ्कोंमें रहेगी। कर्मयोगका आदि-मध्य और अन्त
कर्मयोगका चरम लक्ष्य है आत्माका पूर्णतः विकास । आत्माके इस पूर्ण विकासको ग्रन्थमें-ब्रह्मपदप्राप्ति (४), ब्रह्म-. निष्टावस्था, आत्मलक्ष्मीको लब्धि, जिनश्री तथा आर्हन्त्यलक्ष्मी. की प्राप्ति (१०, ७८), आहन्त्य-पदावाप्ति (१३३), आत्यन्तिक