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- समन्तभद्र-भारती
जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न प्रवर्तते । । इहाऽप्यमुत्राऽप्यनुबन्धदोषवित्
कथं सुखे संसजतीति चाऽब्रवीत् ॥ ४ ॥ 'आपने जगत्को यह भी बतलाया है कि अनुबन्ध-दोषसेपरमासक्तिके वश-विषय-सेवनमें अति लोलुपी हुआ भी मनुष्य इस लोकमें राजदण्डादिका भय उपस्थित होनेपर अकार्यो मेंपरस्त्रीसेवनादि जैसे कुकर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, फिर जो मनुष्य इस । लोक तथा परलोकमें होनेवाले विषयासक्तिके दोषोंको-भयंकर
परिणामोंको-भलेप्रकार जानता है वह कैसे विषय-सुखमें आसक्त ! । होसकता है ?-नहीं हो सकता। अत्यासक्तिके इस लोक और पर, लोक-सम्बन्धी भयंकर परिणामोंका स्पष्ट अनुभव न होना ही विषय सुखमें । श्रासक्तिका कारण है । अतः अनुबन्धके दोषको जानना चाहिये ।'
स चानुवन्धोऽस्य जनस्य तापकृत् तुषोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः। इति प्रभो! लोक-हितं यतो मतं
ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥शा (२०) वह अनुबन्ध-आसक्तपन और (विषयसेवनसे उत्पन्न होने! वाली) तृष्णाकी अभिवृद्धि-उत्तरोत्तर विषय-सेवनकी आकांक्षा-- ! | इस लोलुपी प्राणीके लिये तापकारी (कष्टप्रद) है--इच्छित वस्तुके हैं
न मिलनेपर उसकी प्राप्ति के लिये और मिल जानेपर उसके संरक्षणादिके | अर्थ संतापकी परम्परा बराबर चालू रहती है-दुःखकी जननी चिन्ताएँ- ।