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समन्तभद्र-भारती
। है तो वह भिन्न होते हुए भी तद्रूप होजाती है-स्वयं वैसी ही दीप-शिखा
बन जाती है।
श्रीपद्मप्रभ-जिन-स्तवन
-*:*:**पद्मप्रभः पद्म-पलाश-लेश्यः पद्मालयाऽऽलिङ्गितचारुमूर्तिः। वभो भवान् भव्य-पयोरुहाणां
पद्माकराणामिव पद्मवन्धुः ॥१॥ 'पद्म-पत्रके समान द्रव्यलेश्याके-रक्तवर्णाभ-शरीरके-धारक । (और इसलिये अन्वर्थसंज्ञक) हे पद्मप्रभ जिन ! आपकी (आत्मस्वरूप तथा शरीररूप ) सुन्दरमूर्ति पद्मालया-लक्ष्मीसे आलिङ्गित रही हैआत्मस्वरूप मूर्तिका अनन्तज्ञानादि-लक्ष्मीने तथा शरीररूप मूर्तिका निःस्वेदतादि-लक्ष्मीने दृढ़ आलिंगन किया है, और इस तरह अापकी उभय प्रकारको मूर्ति उभय प्रकारकी लक्ष्मीके (शोभाके) साथ तन्मयताको प्राप्त हुई है । और आप भव्यरूप कमलोंको विकसित करने के लिये
*इसी भावको श्रीपूज्यपाद आचार्यने. अपने. 'समाधितंत्र'की निम्न * कारिकामें व्यक्त किया है----
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः वर्तिीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥१७॥