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ચૂંટ
स्वयम्भू स्तोत्र
किया है— वस्तुतत्त्व सर्वथा अवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन किया है (१००) ।
सत्, असत् . एक, अनेक, नित्य, अनित्य, वक्तव्य और अवक्तव्यरूप में जो नयपक्ष हैं वे सर्वथ रूपमें तो अतिंदूषित हैं - मिध्यानय है - स्वष्टमें बाधक हैं और स्यात् रूप में पुष्टिको प्राप्त होते हैं- सम्यकव्य हैं अर्थात् स्वकीय अर्थका निर्बाध - रूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ हैं (१०१) ।
'स्यात् ' शब्द सर्वथारूपसे प्रतिपादन के नियमका त्यागी और यथाहटको - जिस प्रकार सत असत आदि रूपमें वस्तु प्रमाणप्रतिपन्न है उसको अपेक्षामें रखनेवाला है। यह शब्द एकान्तवादियोंके न्यायमें नहीं है । एकान्तवादी अपने वैरी आप हैं (१०२) ।
स्याद्वादरूप आईत मत में सम्यक एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण और नय-साधनों (दृष्टियों ) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्तरूप और विवक्षित-नयकी दृष्टिसे अनेकान्त में एकान्तरूप - प्रतिनियतधर्मरूप - सिद्ध होता है (१०३) ।
(१) प्रतिपादित धर्मतीर्थ संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंके लिये पार उतरनेका प्रधान मार्ग है ( १०६ ) । शुक्लध्यानरूप परमतपोग्नि ( परम्परासे चले आनेवाले ) अनन्त - दुरितरूप कर्माष्टकको भस्म करने के लिए समर्थ है (११०) ।
(२०) 'चर और अचर जगत प्रत्येक क्षणमे 'ध्रौव्य उत्पाद और व्यय - लक्षणोंको लिए हुए हैं ' यह वचन जिनेन्द्रकी सर्वज्ञताका चिह्न है ( ११४) । आठों पापमलरूप कलङ्कोंको ( जिन्होंने . जीवात्मा के वास्तविक स्वरूपको आच्छादित कर रक्खा है )