Book Title: Swayambhu Stotram
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ स्वयम्भू-स्तोत्र 'मुमुक्षुओं को इच्छित प्रदान करनेवाले -- उनकी मुक्ति-प्राप्ति में परमसहायक - ( वीर जिन !) आप मद और मायासे रहित हैंअकषायभावको प्राप्त होनेसे निर्दोष हैं, आपका जीवादि-पदार्थोंका परिज्ञान — केवलज्ञानरूप प्रमाण - ( सकल बाधाओं से रहित होनेके कारण) अतिशय प्रशंसनीय है, और आपने श्रीविशिष्ट - हेयोपादेय तत्त्वके परिज्ञान-लक्षणा लक्ष्मी से युक्त - तथा कपट-रहित यम और दसका -- महाव्रतोंके अनुष्ठान तथा परम इन्द्रियजयका -- उपदेश दिया है ।' गिरिभियवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्रवद्दानवतः । तव शम-वादानवतो गतमूर्जितमपगत- प्रमादानवतः ||७|| 'जिस प्रकार करते हुए मदके दानी और गिरि-भित्तियोंपर्वत - कटनियों का विदारण करनेवाले ( महासामर्थ्यवान् ) और श्रीमान् -- सर्वलक्षणसम्पन्न उत्तम जाति - विशिष्ट - - गजेन्द्रका स्वाधीन गमन होता है उसी प्रकार परम अहिंसा दान - - अभयदान के दानी हे वीर जिन ! शमवादोंकी - - रागादिक दोपांकी उपशान्तिके प्रतिपादक आगमोंकी —— रक्षा करते हुए आपका उदार बिहार हुआ है । - आपने अपने विहार द्वारा जगत्‌को रागादिक दोषोके शमनरूप परमब्रह्मअहिंसाका, सद्दृष्टि-विधायक अनेकान्तवादका और समता प्रस्थापक साम्यवादका उपदेश दिया है, जो सब ( अहिसा अनेकान्तवाद और साम्यवाद ) लोकमें मद—अहंकारका त्याग, वैर - विरोधका परिहार और परस्परमें अभयदानका विधान करके सर्वत्र शान्ति-मुखकी स्थापना करते हैं और इस लिये सन्मार्ग-स्वरूप हैं | साथ ही, वैपम्य-स्थापक, हिंसा - विधायक और सर्वथा एकान्त-प्रतिपादक उन सभी वादों-मतोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे।' ܀܀܀܀ ८७ ܀ ܀ ܘܩܕܟܐ ܡܕܝܕ ܀ ܀ ܀ ܀

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206