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स्वयम्भू-स्तोत्र .
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। के जो सावद्यलेश होता है--सरागपरिणति तथा प्रारम्भादिक-द्वारा । - लेशमात्र पापका उपाठन होता है वह (भावपूर्वक की हुई पूजासे उत्पन्न ! होने वाली) बहुपुण्य-राशिमें दोषका कारण नहीं बनता-प्रचुर
पुण्य-पुञ्जसे हतवीर्य हुया वह पाप उस पुण्यको दूषित करने अथवा पाप* रूप परिणत करनेमें समर्थ नहीं होता। (सो ठीक ही है) विषकी एक
कणिका शीतल तथा कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको में दूषित नहीं करती--उसे प्राणघातक विष-धर्मसे युक्त विषैला नहीं। बनाती।
यद्वस्तु बाह्यं गुण-दोष-सूतेनिमित्तमभ्यन्तर-मूलहेतोः। अध्यात्म-वृत्तस्य तदङ्गभूत
मभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ॥४॥ 'जो बाह्य वस्तु गुण-दोषकी-पुण्य-पापादिरूप उपकार-अपकारकी-उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरङ्गमें वर्तनेवाले
गुण-दोषोंकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी-शुभाऽशुभादि-परि! णाम-लक्षण उपादानकारणकी-अंगभूत-सहकारी कारणभूत होती !
है (और इस कारण मूल कारण शुभाऽशुभादि-परिणामके अभावमें। सहकारीकारणरूप कोई भी बाह्य वस्तु पुण्य-पापादिरूप गुण-दोपकी जनक नहीं)। बाह्य वस्तुकी अपेक्षा न रखता हुअा केवल अभ्यन्तर कारण भी- ।
अकेला जीवादि किसी द्रव्यका परिणाम भी-गुण-दोषकी उत्पत्तिमें ! समर्थ नहीं है।'
'ते' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियों का पाठ ।