________________
स्वयम्भू-स्तोत्र
यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्नि
ानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् । तं जिन-सिंह कृतकरणीयं
मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥५॥ (११०) और जिनकी शुक्लध्यानरूप परम तपोऽग्निने अनन्त दुरितको अन्तको प्राप्त न होनेवाले (परम्परासे चले आनेवाले) कर्माष्टककोभस्म किया था,
उन (उक्त गुणविशिष्ट) कृतकृत्य और अशल्य-माया-मिथ्यानिदान-शल्यवर्जित-मल्लिजिनेन्द्रकी मैं शरण में प्राप्त हुआ हूँइस शरण-प्राप्ति-द्वारा उस अनन्त दुरितरूप कर्मशत्रुसे मेरी रक्षा होवे ।'
श्रीमुनिसुव्रत-जिन-स्तवन
अधिगत-मुनि-सुव्रत-स्थितिमुनि-वृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः। मुनि-परिषदि निर्बभौ भवा
नुडु-परिषत्परिवीत-सोमवत् ॥१॥ _ 'मुनियोंके सुब्रतोंकी-मूलोत्तर-गुणोंकी स्थितिको अधिगत | करनेवाले उसे भले प्रकार जाननेवाले ही नहीं किन्तु स्वतः के प्राच