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स्वयम्भूस्तोत्र
है। इस मोहका बहुत बड़ा परिवार है। दृष्टि-विकार (मिथ्यात्व), ममकार. अहंकार. राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, और घृणा (जुगुप्सा) ये सब उस परिवार के प्रमुख अंग है अथवा मोहके परिणाम-विशेष है, जिनके उत्तरोत्तर भेद तथा प्रकार असंख्य हैं । इन्हें अन्तरंग तथा आभ्यन्तर परिग्रह भी कहते हैं। इन्होंने भीतरसे जीवात्माको पकड़ तथा जकड़ रक्खा है । ये ग्रहकी तरह उसे चिपटे हुए हैं और अनन्त दोषों, विकारों एवं आपदाओंका कारण बने हुए हैं। इसीसे ग्रन्थमें मोहको अनन्त दोषोंका घर बतलाते हुए उस ग्राहकी उपमा दी गई हैं जो चिरकालसे आत्माके साथ संलग्न हैचिपटा हुआ है । साथ ही उसे वह पापी शत्रु बतलाया है जिसके क्रोधादि कषाय सुभट हैं (६५)। इस मोहसे पिण्ड छुडाने के लिये उसके अंगोंको जैसे तैसे भंग करना, उन्हें निर्बलकमजोर बनाना, उनकी आज्ञा न चलना अथवा उनके अनुकुल परिणमन न करना ज़रूरी है।
सबसे पहले दृष्टिविकारको दूर करने की जरूरत है। यह महाबन्धन है, सर्वोपरि बन्धन है और इसके नीचे दूरे बन्धन छिपे रहते हैं । दृष्टिविकारकी मौजूदगीमें यथार्थ वस्तुतत्त्वका परिज्ञान ही नहीं हो पाता-बन्धन बन्धनरूपमें नज़र नहीं आता
और न शत्र शत्रुके रूपमें दिखाई देता है। नतीजा यह होता है कि हम बन्धनको बन्धन न समझ कर उसे अपनाए रहते हैं, शत्रुको मित्र मानकर उसकी आज्ञामें चलते रहते हैं और हानिकरको हितकर समझनेकी भूल करके निरन्तर दुःखों तथा कष्टोंके चक्कर में पड़े रहते हैं-कभी निराकुल एवं सच्चे शान्तिसुखके उपभोक्ता नहीं हो पाते । इस दृष्टि-विकारको दूर १ अनन्त दोषाशय-विग्रहो ग्रहो विषंगवान्मोहमयश्चिरं हृदि (६६) ।