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स्वयम्भू-स्तोत्रं .
| निमित्त-सहकारी कारण, अन्तरङ्ग निमित्त-उपादान कारण, और । , नैमित्तक-निमित्तोसे उत्पन्न होनेवाले कार्य के- सम्बन्धको लिये हुए
है----द्रव्यस्वरूप ग्रंन्तरङ्ग कारण के सम्बन्धकी अपेक्षा नित्य है और क्षेत्रादिरूप बाह्य कारण तथा परिणाम-पर्यायरूप कार्यकी अपेक्षा अनित्य है।'
अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो
गुणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः ॥४॥ ‘पदका वाच्य-शब्दका अभिधेय-प्रकृतिसे--स्वभावसे-एक और अनेक दोनोंरूप है-सामान्य और विशेषमें अथवा द्रव्य और ! पर्यायमें अभेद-विवक्षाके होनेपर एकरूप है और भेद-विवक्षाके होनेपर अनेकरूप है--'वृक्षाः' इस पदज्ञानकी तरह । अर्थात् जिस प्रकार 'वृक्षाः' यह एक व्याकरण-सिद्ध बहुबचनान्त पद है, इसमें जहाँ वृक्षत्वसामान्यका बोध होता है वहाँ वृक्ष-विशेपोंका भी बोध होता है। वृक्षत्ववृक्षपना अर्थात् वृक्षजाति(वृक्षसामान्य)की अपेक्षा इसका वाच्य एक है और वृक्षविशेषकी-ग्राम, अनार, शीशम, जामुन आदिकी-अपेक्षा इसका वाच्य अनेक हैं; क्योंकि कोई भी वृक्ष हो उसमें सामान्य और विशेष दोनों
धर्म रहते हैं, उनमेसे जिम समयं जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय । * वह धर्म मुख्य होता है और दूसरा (अविवक्षित) गौण; परन्तु जो धर्म गौण ! होता है वह उस विवक्षाके समय कहीं चला नहीं जाता-उसी वृक्ष-वस्तुमें में रहता है, कालान्तरमें वह भी मुरव्य हो सकता है। जैसे 'याम्राः' कहने पर । है जब 'अाम्रत्व' धर्म मुख्य होकर विवक्षित होता है तब 'वृक्षत्व' नामका । सामान्यधर्म उससे अलग नहीं हो जाता-वह भी उसीमें रहता है। और जब