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___ स्वयम्भू-स्तोत्र :
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। सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान्–प्रेक्षापूर्वकारी । * अथवा विवेकी जन है जो आपकी स्तुति न करे ? करे ही करे।।
त्वया धीमन् ! ब्रह्म-प्रणिधि-मनसा जन्म-निगलं समूलं निभिन्न त्वमसि विदुषां मोक्ष-पदवी । त्वयि ज्ञान-ज्योतिर्विभव-किरण ति भगवनभूवन खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥२॥ 'हे बुद्धि-ऋद्धिसम्पन्न भगवन् ! आपने परमात्म(शुद्धात्म)स्वरूपमें चित्तको एकाग्र करके पुनर्जन्मके बन्धनको उसके मूलकारण-सहित नष्ट किया है, अतएव श्राप विद्वज्जनोंके लिए मोक्ष
मार्ग अथवा मोक्षस्थान हैं-आपको प्राप्त होकर विवेकी जन अपना । 2 मोक्ष-साधन करनेमें समर्थ होते हैं । आपमें विभव (समर्थ) किरणोंके 2. साथ केवलज्ञानज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकान्त
वादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए हैं जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत ( जुगनू ) होते हैं।'
विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येकं नियम-विषयेश्चापरिमितेः। सदाऽन्योन्यापेक्षैः सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुणा
त्वया गीतं तत्त्वं बहु-नय-विवक्षेतर-वशात् ॥३॥ ' हे सम्पूर्ण जगत्के महान् गुरु श्रीनमिजिन ! आपने वस्तुतत्त्वको बहुत नयोंकी विवक्षा-अविक्षाके वशसे विधेय, वार्य (प्रतिषेध्य) उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग-विधेयाऽनुभय, प्रतिषेध्या| ऽनुभय और उभयाऽनुभय-(ऐसे सप्तभंग) रूप निर्दिष्ट किया है। साथ ।