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स्वयम्भू-स्तोत्र ।
कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्त्रैलोक्य-विजयार्जितः।
हे पयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६॥ . 'तीन लोककी विजयसे उत्पन्न हुए कामदेवके उत्कट दर्पकोमहान् अहंकारको-आपने लज्जित किया है। आप धीरवीरअक्षुभितचित्त-मुनीन्द्र के सामने कामदेव हतोदय (प्रभावहीन ) हो गया-उसकी एक भी कला न चली ।' ।
आयत्यां च तदात्वे च दुःख-योनिर्दुरुत्तरा ।
तृष्णा नदी त्वयोत्तीर्णा विद्या-नावा विविक्तया ॥७॥ ___ 'आपने उस तृष्णा नदीको निर्दोष ज्ञान-नौकासे पार किया
है जो इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योति है-कष्ट-परम्पराको । उत्पन्न करनेवाली है और जिसका पार करना आसान नहीं है1 बड़े कष्टसे जिसे तिरा ( पार किया ) जाता है ।'
अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वर-सखः सदा । त्वामन्तकाऽन्तकं प्राप्य व्यावृत्तः काम-कारतः ।।८।।
'पुनर्जन्म और ज्वरादिक रोगोंका मित्र अन्तक-यम सदा ! मनुष्योंको रुलानेवाला है; परन्तु आप अन्तकका अन्त करनेवाले
हैं, आपको प्राप्त होकर अन्तक-काल अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति1 से उपरत हुआ है-उसे अापके प्रति अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा है।' भूपा-वेपाऽऽयुध-न्यागि विद्या-दम-दया-परम् ।
रूपमेव तवाऽऽचष्टे धीर! दोष-विनिग्रहम् ॥६॥ । 'हे धीर अर-जिन ! आभूषणों, वेषों तथा आयुधोंका त्यागी ।