________________
४८ .
.समन्तभद्र-भारती
। अभिमत फलको फलते हैं यथा स्थित वस्तुतत्त्वके प्ररूपणमें समर्थ । से होकर सन्मार्गपर ले जाते हैं । इसीसे अपना हित चाहनेवाले आर्य
जनोंने आपको प्रणाम किया है-उत्तम पुरुष सदा ही आपके सामने नत-मस्तक हुए हैं।'
श्रीअनन्तजित्-जिन-स्तवन
अनन्त-दोषाऽऽशय-विग्रहो ग्रहो विषङ्गवाल्मोह-मयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वाँचौ प्रसीदता
त्वया ततोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥१॥
'जिसका शरीर अनन्त दोषोंका-राग-द्वेष-कामक्रोधादिक | अगणित विकारोंका-आधारभूत है (और इसी लिये अनन्त-संसार- ।
परिभ्रमणका कारण है) ऐसा मोहमयी ग्रह-पिशाच, जो चिरकालसे हृदयमें चिपटा हुआ था-आत्माके साथ सम्बद्ध होकर उसपर अपना आतङ्क जमाए हुए था-वह चूँकि तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण
करनेवाले आपके द्वारा पराजित-निर्मूलित-किया गया है, इस | लिये आप भगवान् 'अनन्तजित्' हुए हैं आपकी 'अनन्तजित्' यह - संज्ञा सार्थक है।'
कषाय-नाम्नां द्विषतां प्रमाथिनामशेषयन्नाम भवानशेषवित् ।