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८२.
:समन्तभद्र - भारता
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बलाहकैर्वै रि-वशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः ॥ १॥ 'तमालवृक्ष के समान नील - श्यामवर्णके धारक, इन्द्रधनुषों तथा विद्युद्गुणोंसे युक्त और भयङ्कर वज्र, वायु तथा वर्षाको सब ओर वखेरनेवाले ऐसे वैरि-वशवर्तीकिमठ शत्रुके इशारे पर नाचने वाले - मेघों से उपद्रत होनेपर - पीडित किये जानेपर भी जो महामना योग्य से - शुक्लध्यान से चलायमान नहीं हुए ।' बृहत्फरणा- मण्डल - मण्डपेन
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यं स्फुरतडित्पिङ्ग - रुचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विराग-संध्या- तडिदम्बुदी यथा ॥२॥
'जिन्हें उपसर्गप्राप्त होनेपर धरणेन्द्र नामके नागने चमकती हुई format पीत को लिये हुए बृहत्करणाओंके मण्डलरूप मण्डप उसी प्रकार वेष्ठित किया जिस प्रकार कृष्णसंध्या में विद्य तोपलक्षित मेघ अथवा विविधवर्णोंकी संध्यारूप विद्युतसे उपलक्षित मेघ पर्वतको वेष्ठित करता है । '
स्व-योग-निस्त्रिंश-निशात धारया निशान्य यो दुर्जय मोह - विद्विषम् । श्रवापदाऽऽर्हन्त्यमचित्यमद्भुतं त्रि-लोक-पूजाऽतिशयाऽऽस्पदं पदम् ||३||
'जिन्होंने अपने योग- शुक्लध्यान रूप खड्गको तीक्ष्ण धारासे दुर्जय मोह - शत्रुका घात करके उस आर्हन्त्यपदको प्राप्त किया है जो कि अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजा अतिशय ( परमंप्रकर्ष ) का स्थान है ।'