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स्वयम्भू-स्तोत्र
। गुणसमुद्र के लवमात्रकी भी स्तुति करने के लिये जव इन्द्र पहले । से ही समर्थ नहीं हुआ है, तो फिर अब मेरे जैसा असमर्थ प्राणी ! कैसे समर्थ हो सकता है ?-नहीं हो सकता | यह आपके प्रति ! मेरी अति भक्ति ही है जो मुझ बालकसे-स्तुति-विश्यमें अनभिज्ञसेइस प्रकारका यह स्तवन कराती है।'
श्री सुपार्श्व-जिन-स्तवन
स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा। तृषोऽनुषंगान च तापशान्ति
रितीदमारव्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥ 'यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है-विभाव-परिणतिसे रहित अपने । अनन्तज्ञानादिमय-स्वात्म-स्वरूपमें अविनश्वरी स्थिति है--वही पुरुषों
का-जीवात्माओंका-स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग-! * इन्द्रय-विषय-सुखका अनुभव--स्वार्थ नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-विषय
सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धि होती ! है और उससे तापकी-~-शारीरिक तथा मानसिक दुखकी-शान्ति !
नहीं होने पाती । यह स्वार्थ और अस्वार्थका स्वरूप शोभनपार्थों
सुन्दर शरीरांगों के धारक (और इसलिये अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान् | सुपार्श्व ने बतलाया है।'