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समन्तभद्र-भारती
अद्यापि यस्याऽजितशासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमङ्गलार्थम् । . प्रगृह्यते नाम परम-पवित्रं
स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ॥२॥ 'जिनका शासन-अनेकान्तमत-अजेय था-सर्वथा एकान्तमता। वलम्बी परवादीजन जिसे जीतनेमें असमर्थ थे और जो सत्पुरुषोंके
भव्यजनोंके-प्रधान नेता थे-उन्हें आत्मकल्याणके समीचीन मार्गमें ! प्रवृत्त करानेवाले थे--उन अजित तीर्थङ्करका परमपवित्र-पाप-
क्षयकारक और पुण्यवर्धक-नाम आज भी-असंख्यात काल बीत .. | जानेपर भी-लोकमें अपनी इष्टसिद्धिरूप विजयके इच्छुक जन- ! . समूहके द्वारा प्रत्येक मंगलके लिये अपनी किसी भी इष्टसिद्धि के निमित्त-सादर ग्रहण किया जाता है-भव्यजनोंकी दृष्टिमें वह बराबर महत्त्व पूर्ण बना हुआ है।'
यः प्रादुरासीत्प्रभु-शक्ति-भूम्ना भव्याऽऽशयालीन-कलङ्क-शान्त्ये । महामुनिर्मुक्त-धनोपदेहो
यथाऽरविन्दाऽभ्युदयाय भास्वान् ॥३॥ 'घातिया कर्मोके आवरणादिरूप उपलेपसे मुक्त जो महामुनि , (गणधरादि-मुनियोंके अधिपति) भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलङ्कोंकी-अज्ञानादि-दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि-कर्मों
की-शान्तिके लिये उन्हें समूल नष्ट कर भव्यजनोंका आत्म-विकास | सिद्ध करनेके लिये-जगतका उपकार करने में समर्थ अपनी वचनादि ।