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स्वयम्भू-स्तोत्रं.
। 'जो ही नित्य-क्षणिकादिक नय परस्परमें अनपेक्ष (स्वतंत्र.) ।
होनेसे-एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर स्वतंत्रभावसे सर्वथा नित्य-क्षणि। कादिरूप वस्तुतत्वका कथन करनेके कारण-(परमतोंमें ) स्वपरप्रणाशी में हैं-निज और पर दोनोंका नाश करनेवाले स्व-पर-बैरी हैं, और इसलिए है दुर्नय हैं । वे ही नय, हे प्रत्यज्ञज्ञानी विमल जिन ! आपके मतमें ! परस्परेक्ष (परस्परतंत्र) होनेसे-एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेसे त्व
पर-उपकारी हैं-अपना और परका दोनोंका भला करनेवाले दोनोंका अस्तित्व बनाये रखनेवाले स्व-पर-मित्र हैं, और इसलिए तत्त्वरूपसम्यक् नय हैं।'
यथैकशः कारकमर्थ-सिद्धये समीक्ष्य शेषं स्व-सहाय-कारकम् । तथैव सामान्य-विशेष-मातृका
नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य कल्पतः ॥२॥ 'जिस प्रकार एक एक कारक-उपादानकारण या निमित्तकारण अथवा कर्ता, कर्म आदि कारकोमेंसे प्रत्येक शेष-अन्यको अपना सहाय- ! करूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धि के लिये समर्थ होता, है, उसी प्रकार (हे विमलजिन !) आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय । करनेवाले (द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि रूप) जो नय हैं वे मुख्य .
और गौणकी कल्पनासे इष्ट ( अभिप्रेत ) हैं। प्रयोजनके वश ! । सामान्यकी मुख्यरूपसे कल्पना (विवक्षा) होनेपर विशेषकी गौणरूपसे ।
और विशेषकी मुख्यरूपसे कल्पना होनेपर सामान्यकी गौणरूपसे कल्पना । होती है, एक दूसरेकी अपेक्षाको कोई छोड़ता नहीं; और इस तरह सभी ।