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. समन्तभद्र-भारती
यह ( दृश्यमान ) जगत, जो कि अनित्य है, अशरण है, अहंकार - ममकार की क्रियाओं के द्वारा संलग्न मिथ्या अभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म- जरा मरणसे पीडित है, उसको ( हे शम्भवजिन ! ) आपने निरञ्जना - कर्म मलके उपद्रवसे रहित मुक्तिस्वरूपा - शान्तिकी प्राप्ति कराई है – उसे उस शान्तिके मार्गपर लगाया है जिसके फलस्वरूप कितनोंने ही चिर शान्तिकी प्राप्ति की है । ' शतह्रदोन्मेष - चलं हि सौख्यं तृष्णाऽऽमयाऽप्यायन - मात्र हेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजत्र तापस्तदायासयतीत्यवादीः || ३||
'आपने पीडित जगतको उसके दुःखका यह निदान बतलाया है कि-- इन्द्रिय-विषय-सुख बिजली की चमक के समान चञ्चल हैक्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है - और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है - इन्द्रिय-विषयोंके सेवन से तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णा की अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है। और वह ताप जगतको ( कृषि-वाणिज्यादि - कर्मों में प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडित करता रहता है ।'
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू * बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः । स्याद्वादिनो नाथ! तवैव युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ||४||
* 'हेतुः' इति पाठन्तरम् ।