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प्रस्तावना
लक्ष्मी - विभव - सर्वस्व मुमुक्षोचकलांबनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्त णमिवाऽभवत् ॥ ८८ ॥
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समस्त बाह्य परिग्रह और ग्रहस्थ जीवनकी सारी सुख-सुविधाको त्यागकर साधु-मुनि बनना यह मोक्षके मार्ग में एक बहुत बड़ा कदम उठाना होता है । इस कदमको उठाने से पहले मुमुक्षु कर्मयोगी अपनी शक्ति और विचार-सम्पत्तिका खूब सन्तुलन करता है और जब यह देखता है कि वह सब प्रकार के कष्टों तथा उपसर्ग-परिषहोंको समभावसे सह लेगा तभी उक्त कदम उठाता है और कदम उठाने के बाद बराबर अपने लक्ष्य की ओर सावधान रहता एवं बढ़ता जाता है । ऐसा होनेपर ही वह तृतीय- कारिका. में उल्लेखित उन सहिष्णु' तथा 'अच्युत' पदोंको प्राप्त होता है. जिन्हें ऋषभदेवने प्राप्त किया था, जब कि दूसरे राजा, जो अपनी शक्ति एवं विचार-सम्पत्तिका कोई विचार न कर भावुकता के वश उनके साथ दीक्षित हो गये थे, कष्ट- परिषहोंके सहने में असमर्थ होकर लक्ष्य भ्रष्ट एवं व्रतच्युत हो गये थे ।
ऐसी हालत में इस बाह्य परिग्रह के त्याग से पहले और बादको भी मन - सहित पांचों इन्द्रियों तथा क्रोध-लोभादि-कपायोंके दमनकी - उन्हें जीतने अथवा स्वात्माधीन रखनेकी - बहुत बड़ी जफ़रत है । इनपर अपना (Control) होनेसे उपसर्ग-परिपहादि
के अवसरों पर मुमुक्षु अडोल रहता है, इतना ही नहीं बल्कि उसका त्याग भी भले प्रकार बनता है । और उस त्यागका निर्वाह भी भले प्रकार सकता है। सच पूछिये तो इन्द्रियादिके दमन - विना — उनपर अपना काबू किये बगैर - सच्चा त्याग बनता ही नहीं. और यदि भावुकताके वश बन भी जाय तो उसका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीसे ग्रन्थमें इस दमका महत्व