Book Title: Sanskrit Sahitya Kosh
Author(s): Rajvansh Sahay
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ अङ्गिरास्मृति ] [अथर्ववेद काव्य-गुण-विवेक एवं ३४७वें अध्याय में काव्य-दोषों का वर्णन है। गुण के तीन भेद किये गए हैं-शब्दगुण, अर्थगुण और शब्दार्थगुण । शब्दगुण के सात भेद कहे गए हैं-श्लेष, लालित्य, गाम्भीयं, सुकुमारता, उदारता, सत्य और यौगिकी। अर्थ के ६ प्रकार हैं-माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढि एवं सामयिकत्व तथा शब्दार्थगुण के भी ६ भेद वर्णित हैं-प्रसाद. सौभाग्य यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक और राग। आधार ग्रन्थ -१. अग्निपुराण-( अंगरेजी अनुवाद) अनुवादक एम० एन० दत्त । २. अग्निपुराण-संपादक आ० बलदेव उपाध्याय । ३. अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग-डॉ० रामलाल वर्मा । ४. संस्कृत साहित्य का इतिहास-सेठ कन्हैयालाल पोद्दार । ५. अग्निपुराण ए स्टडी-डॉ० एस० डी० ज्ञानी। ___अङ्गिरास्मृति-इस ग्रन्थ के रचयिता अङ्गिरा नामक ऋषि हैं । 'याज्ञवल्क्य स्मृति' में अङ्गिरा को धर्मशास्त्रकार माना गया है और अपराक, मेधातिथि, हरदत्त प्रभृति धर्मशास्त्रियों ने भी इनके धर्मविषयक अनेक तथ्यों का उल्लेख किया है। 'स्मृतिचन्द्रिका' में अंगिरा के गद्यांश उपस्मृतियों के रूप में प्राप्त होते हैं। जीवानन्द-संग्रह में 'अङ्गिरास्मृति' में केवल ७२ श्लोक प्राप्त होते हैं। इसमें वणित विषयों की सूची इस प्रकार हैअन्त्यजों से भोज्य तथा पेय ग्रहण करना, गौ के पीटने एवं चोट पहुंचाने का प्रायश्चित्त तथा स्त्रियों द्वारा नीलवस्त्र धारण करने की विधि । ___ आधार ग्रन्थ-धर्मशास्त्र का इतिहास (खण्ड १) डॉ० पी० बी० काणे, हिन्दी अनुवाद । अथर्ववेद-'अथव' का अर्थ है 'जादू-टोना' या 'अथर-वाणि' तथा अथरवन् का अर्थ अग्नि-उद्बोधन करने वाला पुरोहित होता है । 'अथर्ववेद' के मूल में जादूगर और पुरोहित का भाव समाविष्ट है। इसका प्राचीन नाम अथर्वाङ्गिरस था। यह नाम उसकी हस्तलिखित प्रतियों में भी प्राप्त होता है यह शब्द अथवं और अङ्गिरा इन दो शब्दों के योग से बना है जो दो प्राचीन ऋषिकुल हैं । आचार्य ब्लूमफील्ड के अनुसार अथर्वशब्द सात्त्विक मन्त्र का पर्याय है जिससे उत्तम विधियों का संकेत प्राप्त होता है तथा अङ्गिरस शब्द तामस मन्त्रों का पर्याय है, जो जादू-टोना एवं आभिचारिक विधियों का प्रतीक है। पहले बतलाया जा चुका है कि वैदिक कर्मकाण्ड के संचालन के लिए चार ऋत्विजों की आवश्यकता पड़ती थी [दे० वैदिक संहिता] । उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान ब्रह्मानामक ऋत्विज का था। वह तीनों वेदों का ज्ञाता होता था, किन्तु उसका प्रधान वेद 'अथर्ववेद' था। स्वयं 'ऋग्वेद' में भी 'यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते' (११८३१५ ) कह कर 'अथर्ववेद' का महत्त्व निर्दिष्ट है, जिससे इसकी प्राथमिकता के साथ-ही-साथ प्राचीनता की भी सिद्धि होती है। 'गोपथब्राह्मण' में बतलाया गया है कि तीन वेदों से यज्ञ का केवल एकपक्षीय संस्कार होता है, पर ब्रह्मा के मन से यज्ञ के दूसरे पक्ष का भी संस्कार हो जाता है । ( गो० ब्रा० ३२) अथर्व-परिशिष्ट में इस प्रकार का विचार व्यक्त किया गया है कि जिस राजा के राज्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 728