Book Title: Sanskrit Sahitya Kosh
Author(s): Rajvansh Sahay
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

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Page 15
________________ अग्निपुराण] [अग्निपुराण का वर्णन एवं ज्योतिषशास्त्र का निरूपण । युद्धविद्या का वर्णन, तान्त्रिक उपासनापति, वर्णाश्रमधर्म तथा विवाह-संस्कार, शौचाशौच आचार, वानप्रस्थ, यतिधर्म तथा नाना प्रकार के पाप एवं उनके प्रायश्चित्त । नरक का वर्णन, दानमहिमा, विविध पूजा का विधान, राजधर्म, दण्डनीति, यात्रा, शकुन, गोचिकित्सा एवं रत्नपरीक्षा । धनुविद्या का वर्णन, दायविभाग तथा कर्मकाण्ड की अनेकानेक विधियों का वर्णन । राजधर्मविवेचन, आयुर्वेद, अश्वायुर्वेद गजायुर्वेद एवं वृक्षायुर्वेद का विवेचन । नाना प्रकार के विधि-विधान तथा विभिन्न काव्यशास्त्रीय विषयों का वर्णन । व्याकरण एवं कोश का विवेचन । योगविद्या, ब्रह्मज्ञान और गीता का सार । इस पुराण की रूपरेखा से ज्ञात होता है कि यह लोक-शिक्षण के निमित्त विविध विद्याओं एवं ज्ञानों का सार प्रस्तुत करने वाला 'पौराणिक विश्वकोश' है, जिसमें सम्पूर्णशास्त्र विषयक सामग्री का संकलन किया गया है। इसके अन्त में कहा गया है कि 'अग्निपुराण' में समस्त विद्याएँ प्रदर्शित की गयी हैं-'आग्नेये हि पुराणोऽस्मिन् सर्वाविद्याः प्रदर्शिताः' । ३८३३५२. अमिपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग- इसके ३३७वें अध्याय से ३४७वें अध्यायतक विभिन्न काव्यशास्त्रीय विषयों का वर्णन है। ३३७वें अध्याय में काव्य का लक्षण, काव्य के भेद, गद्यकाव्य एवं उसके भेदोपभेद तथा महाकाव्य का विवेचन है। इसमें ध्वनि, वर्ण, पद एवं वाक्य को वाङ्मय कहकर शास्त्र, काव्य और इतिहास तीनों को वाङ्मय के अन्तर्गत माना गया है। 'अग्निपुराण' में गद्यकाव्य के पांच प्रकार-आख्यायिका, कथा, खण्डकथा, परिकथा तथा कथानिका एवं पद्य के सात भेद-महाकाव्य, कलाप, पर्याबन्ध, विशेषक, कुलक, मुक्तक और कोष-किये गए हैं। अध्याय ३३८ में रूपकविवेचन है, जिसमें रूपक के भेद, अर्थप्रकृति, नाटकीय संधि तथा श्रेष्ठ नाटक के गुणों की चर्चा है। अध्याय ३३९ में शृंगारादि रसों का निरूपण है। रस के सभी अंगस्थायी, संचारी, विभाव, अनुभाव-के वर्णन के पश्चात् नायिका-भेद का वर्णन है। इसमें ब्रह्म की अभिव्यक्ति को चैतन्य, चमत्कार या रस कहा गया है। ब्रह्म के आदिम विकार को अहंकार कहते हैं, जिससे अभिमान का उदय होता है। अभिमान से ही रति की उत्पत्ति होती है और रति, व्यभिचारी आदि भावों से परिपुष्ट होकर श्रृंगार रस के रूप में परिणत हो जाती है। श्रृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत और वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है। ३४०वें अध्याय में रीति-निरूपण है, जिसमें चार प्रकार की रीतियों-पांचाली, गौड़ी, वैदर्भी एवं लाटी या लाटता का निरूपण किया गया है। ३४१वें अध्याय में नृत्यादि का निरूपण तथा ३४२वें में अभिनय का विवेचन है। ३४३वें अध्याय में शब्दालंकारों का भेदोपभेद सहित विवेचन है जिसमें अनुप्रास, यमक, चित्र और बन्ध नामक आठ अलंकार हैं। ३४४वें अध्याय में अर्थालंकारों का विवेचन है। इसमें सर्वप्रथम आठ अर्थालंकारों का निरूपण हैस्वरूप, सादृश्य, उत्प्रेक्षा, अतिशय, विभावना, विरोध, हेतु और सम । इसके बाद उपमा, रूपक, सहोक्ति, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का भेदों सहित विवेचन किया गया है। ३४५वें अध्याय में शब्दार्थालंकारों का विवेचन है, जिनकी संख्या ६ हैप्रशस्ति, क्रान्ति, औचित्य, संक्षेप, यावदर्थता और अभिव्यक्ति । ३४६वें अध्याय में

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