Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 11
________________ श्री अष्टक प्रकरण ३. अथ पूजाष्टकम् अष्टपुष्पी समाख्याता, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । अशुद्धेतरभेदेन, द्विधा तत्त्वार्थदर्शिभिः ॥१॥ अर्थ - तत्त्वदर्शियों ने अष्टपुष्पी नाम की पूजा अशुद्ध और शुद्ध भेद से दो प्रकार की कही हैं। अशुद्ध पूजा स्वर्ग को देनेवाली हैं । शुद्ध पूजा मोक्ष को देनेवाली हैं। शुद्धागमैर्यथालाभं प्रत्यग्रैः शुचिभाजनैः । स्तोकैर्वा बहुभिर्वापि, पुष्पैर्जात्यादि सम्भवैः ॥२॥ अष्टाऽपायविनिर्मुक्त - तदुत्थगुणभूतये । दीयते देवदेवाय या, साऽशुद्धत्युदाहृता ॥३॥ अर्थ - आठ अपाय (कर्मों) से मुक्त और आठ कर्मों की मुक्ति से उत्पन्न हुए ज्ञान आदि आठ गुण रूपी विभूतिवाले देवाधिदेव की पुष्पों से होनेवाली पूजा को सर्वज्ञों ने अशुद्ध-सावद्य पूजा कही हैं। सङ्कीर्णैषा स्वरूपेण, द्रव्याद् भावप्रसक्तितः । पुण्यबन्धनिमित्तत्वाद्, विज्ञेया स्वर्गसाधनी ॥४॥ अर्थ - यह अशुद्ध पूजा स्वरूप से, पाप और शुभ भाव से मिश्रित हैं । इस पूजा में सचित्त द्रव्य का उपयोग होने से अवद्य – पाप लगता हैं और भक्ति होने से शुभ भाव उत्पन्न होते है। इससे यह पूजा (कर्मक्षय का कारण न

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