Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 77
________________ श्री अष्टक प्रकरण आंतरिक (आध्यात्मिक) धन कहा जाता हैं । जिसका चित्तरत्न रागादि दोषों के द्वारा चुराया गया हैं, उसको विपत्तियाँ आनी ही बाकी रहती हैं । ७६ प्रकृत्या मार्गगामित्वं, सदपि व्यज्यते ध्रुवम् । ज्ञानवृद्धप्रसादेन, वृद्धिं चाप्नोत्यनुत्तराम् ॥ अर्थ चित्त का मार्गगामित्व आगमविशुद्धि स्वाभाविक होने पर भी ज्ञानवृद्धों की प्रसन्नता से अवश्य व्यक्त होता हैं और अत्यंत वृद्धि को प्राप्त होता हैं । - दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥८ ॥ अर्थ १. प्राणि - दया - सर्व प्रकार के जीवों पर कृपा। २. वैराग्य संसार से विरक्ति ३. विधिपूर्वक गुरुपूजन भक्त-पान प्रदान, वंदन आदि ४. विशुद्ध शीलवृत्ति - अहिंसादि व्रतों का निरतिचार पालन । - — —

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