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श्री अष्टक प्रकरण
अर्थ - आत्मा का लोकालोक को प्रकाशित करने का स्वभाव होने से केवलज्ञान लोकालोक प्रकाशक हैं । इससे ही केवलज्ञान, उत्पत्ति के समय पर भी लोकालोक को प्रकाशित करता हैं ।
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आत्मस्थमात्मधर्मत्वात् संवित्त्या चैवमिष्यते । गमनादेरयोगेन, नान्यथा तत्त्वमस्य तु ॥ ५ ॥
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अर्थ - केवलज्ञान आत्मधर्म होने से आत्मा में ही रहता हैं | अपने स्वयं के अनुभव से भी यह वास्तविकता समझी जा सकती हैं । हमें ज्ञान का अनुभव आत्मा में ही होता हैं । आत्मा के बाहर कहीं पर भी कभी भी ज्ञान का अनुभव नहीं होता । केवलज्ञान भी ज्ञान ही हैं न ! अर्थात् अनुभव से भी केवलज्ञान आत्मा में ही रहता हैं । यह सिद्ध होता हैं ।
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यच्च चंद्रप्रभाद्यत्र, ज्ञानं तज्ज्ञातमात्रकम् । प्रभा पुद्गलरूपा यत्तद्धर्मो नोपपद्यते ॥६॥ अतः सर्वगताभास - मप्येतन्न यदन्यथा । युज्यते तेन सन्न्यायात् संवित्त्यादोऽपि भाव्यताम् ॥७॥
अर्थ - यहाँ केवलज्ञान के स्वरूप को पहचानने के लिए दिया जानेवाला चंद्रप्रभा आदि का दृष्टान्त तो मात्र उपमा हैं । उपमा में सभी धर्मो की समानता नहीं होती । केवलज्ञान और चंद्रप्रभा में सभी धर्मों की समानता नहीं हैं ।
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