Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 94
________________ श्री अष्टक प्रकरण अर्थात् केवलज्ञान, चंद्रप्रभा के समान हैं, अर्थात् जैसे चंद्रप्रभा प्रकाश रूप हैं वैसे ही केवलज्ञान भी प्रकाश रूप हैं इतना ही हैं । किन्तु जैसे चंद्रप्रभा वस्तु के पास जाकर वस्तु को प्रकाशित करती हैं वैसे केवलज्ञान भी वस्तु के पास जाकर प्रकाशित करता हैं, ऐसा अर्थ नहीं हैं । अर्थात् केवलज्ञान और चंद्रप्रभा में मात्र प्रकाश की समानता हैं । यदि इन दोनों में सभी धर्मों की समानता को स्वीकार किया जाए तो चंद्रप्रभा पुद्गल रूप द्रव्य होने से केवलज्ञान को जीव के रूप में नहीं माना जा सकेगा, द्रव्य के रूप में मानना पड़ेगा । अन्यथा सर्व धर्मों की समानता न हो सकेगी। नाद्रव्योऽस्ति गुणोऽलोके, न धर्मान्तौ विभुर्न च । आत्मा तद्गमनाद्यस्य, नास्तु तस्माद् यथोदितम् ॥८॥ अर्थ - १. गुण द्रव्य के बिना रहता ही नहीं । केवलज्ञान गुण हैं । अतः द्रव्य के बिना न रहने से आत्मस्थ ही हैं। २. केवलज्ञान का गमन (ज्ञेय वस्तु के पास जाना) स्वीकारे तो भी वह लोक में ही जा सकता हैं । कारण कि 'अलोके न धर्मान्तौ' अर्थात् अलोक में गति सहायक धर्मास्तिकाय न होने से गति हो ही नहीं सकती । धर्मास्तिकाय के बिना भी अलोक में गति हो सकती हैं, ऐसा कदाचित् मान लें तो भी अलोक का अंत न होने से

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