Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 14
________________ श्री अष्टक प्रकरण ४. अथाग्निकारिकाष्टकम् १३ कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सद्भावनाहुतिः । धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥ अर्थ - संसार-त्यागी साधु को कर्म रूपी काष्ठ को जलाने के लिए धर्मध्यान रूपी अग्नि के द्वारा शुभ भावना रूपी आछुतिवाली और कर्म रूपी काष्ठ को जलाने में समर्थ अग्निकारिका करनी चाहिए । अर्थात् साधु को कर्म रूपी काष्ठ को जलाने के लिए धर्मध्यान रूपी अग्नि को जलाकर उसमें शुभ भावना रूपी आहुति देकर अग्निकारिका करनी चाहिए । दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता, ज्ञानध्यान- फलं स च । शास्त्र उक्तो यतः सूत्रं, शिवधर्मोत्तरे ह्यदः ॥ २ ॥ अर्थ - दीक्षा का स्वरूप जाननेवाले तत्त्वज्ञों ने दीक्षा मोक्ष के लिए कही हैं। मोक्ष ज्ञान और ध्यान से ही प्राप्त होता हैं, इस प्रकार शास्त्र में कहा गया हैं । कारण कि शैव दर्शन के शिवधर्म नामक आगम विशेष में यह कहा गया हैं पूजया विपुलं राज्य - मग्निकार्येण सम्पदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थं, ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥३॥ अर्थ - देव की पूजा से राज्य मिलता हैं । द्रव्य अग्निकारिका से समृद्धि मिलती हैं। तप पाप की शुद्धि (अशुद्ध कर्म के क्षय) के लिए हैं। ज्ञान और ध्यान मोक्ष - दायक है।

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