Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 79
________________ ७८ श्री अष्टक प्रकरण जीवितो गृहवासेऽस्मिन्, यावन्मे पितराविमौ । तावदेवाधिवत्स्यामि, गृहानहमपीष्टतः ॥४॥ अर्थ - जब तक मेरे माता-पिता इस गृहवास में जीवित रहेंगे तब तक ही मैं भी स्वेच्छापूर्वक घर में रहूँगा। इमौ शुश्रूषमाणस्य, गृहानावासतो गुरू। प्रव्रज्याप्यानुपूर्येण, न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति ॥५॥ अर्थ - घर में रहकर पूज्य माता-पिता की सेवा करते हुए, अनुक्रम से अंत में मेरी योग्य प्रव्रज्या भी होगी। सर्वपापनिवृत्तिर्यत्, सर्वथैषा सतां मता । गुरूद्वेगकृतोऽत्यन्तं, नेयं न्याय्योपपद्यते ॥६॥ अर्थ - विद्वान पुरुषों ने इस प्रव्रज्या को सर्व प्रकार से सर्व पापों से निवृत्ति रूप माना हैं । इससे माता-पिता को उद्वेग करनेवाले की प्रव्रज्या बिल्कुल योग्य नहीं हैं। प्रारम्भमङ्गलं ह्यस्या, गुरुशुश्रूषणं परम् । एतौ धर्मप्रवृत्तानां, नृणां पूजास्पदं महत् ॥७॥ अर्थ - माता-पिता की सेवा प्रव्रज्या का प्रथम भाव मंगल हैं। कारण कि धर्म में प्रवृत्त मनुष्यों के लिए माता-पिता परम पूज्य है। स कृतज्ञः पुमाँल्लोके, स धर्मगुरुपूजकः । स शुद्धधर्मभाक् चैव, च एतौ प्रतिपद्यते ॥८॥ अर्थ - जो माता-पिता की सेवा-पूजा करता हैं, वही लोक में कृतज्ञ कहा जाता हैं, वही धर्मगुरु का पूजक बनता हैं, वही निर्दोष धर्माराधना करनेवाला होता हैं ।

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