Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 82
________________ श्री अष्टक प्रकरण ८१ संख्यावाला नहीं होगा । इस प्रकार अर्थापत्ति से बहुत अर्थियों का अभाव सिद्ध होता हैं। बहुत अर्थियों के अभाव से दान संख्यावाला होता है। महानुभावताप्येषा, तद्भावे न यदर्थिनः । विशिष्टसुखयुक्तत्वात्, सन्ति प्रायेण देहिनः ॥७॥ अर्थ - तीर्थंकरों की उपस्थिति में लोग प्रायः विशिष्ट सुख से - संतोष से युक्त होने से दान नहीं माँगते हैं । तीर्थंकरों का अतिशय प्रभाव भी यही हैं। धर्मोद्यताश्च तद्योगात्, ते तदा तत्त्वदर्शिनः । महन्महत्त्वमस्यैव - मयमेव जगद्गुरुः ॥८॥ अर्थ - तथा तीर्थंकर विद्यमान होते हैं तब उनके संबंध से लोग तत्त्वदर्शी बनकर धर्म में उद्यत होते हैं । इस प्रकार संतोष रूप संपत्ति देने से तीर्थंकर का संख्यावाला ही दान महादान होने से तीर्थंकर ही महानुभाव महाप्रभावशाली हैं और जगद्गुरु हैं, न कि बोधिसत्त्व ।

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