________________
८८
श्री अष्टक प्रकरण
२९. अथ सामायिकनिरूपणाष्टकम्
सामायिकं च मोक्षाङ्गं, परं सर्वज्ञभाषितम् । वासीचन्दनकल्पाना - मुक्तमेतन्महात्मनाम् ॥१॥
अर्थ - सर्वज्ञ के द्वारा कथित सामायिक -समभाव रूप चारित्र मोक्ष का प्रधान कारण हैं । ज्ञान - दर्शन भी मोक्ष के कारण हैं, किन्तु सामायिक द्वारा कारण बनने से अप्रधान कारण हैं । यह सामायिक वासी -चंदन कल्प महात्माओं को होती हैं ।
निरवद्यमिदं ज्ञेय - मेकान्तेनैव तत्त्वतः । कुशलाशयरूपत्वात्, सर्वयोगविशुद्धितः ॥२॥
अर्थ - सामायिक में तीन योगों की विशुद्धि होने से वह कुशल आशय रूप एवं शुभपरिणाम रूप हैं । इससे सामायिक को परमार्थ से सर्वथा निरवद्य (सर्व प्रकार के पापों से रहित ) जानना चाहिए ।
यत्पुनः कुशलं चित्तं, लोकदृष्ट्य व्यवस्थितम् । तत्तर्थौदार्ययोगेऽपि, चिन्त्यमानं न तादृशम् ॥३॥ अर्थ - किन्तु जो सामान्य लोगों की दृष्टि से शुभ के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वह बुद्ध परिकल्पित कुशलचित्त सामान्य लोगों की दृष्टि से उदारता - युक्त होने पर भी विचार करने पर सामायिक-तुल्य नहीं हैं ।