Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 26
________________ श्री अष्टक प्रकरण ८. अथ प्रत्याख्यानाष्टकम् द्रव्यतो भावतश्चैव, प्रत्याख्यानं द्विधा मतम् । अपेक्षादिकृतं ह्याद्य - मतोऽन्यच्चरमं मतम् ॥१॥ अर्थ - द्रव्य और भाव दो प्रकार के पच्चक्खाण हैं । अपेक्षा आदि से किया गया पच्चक्खाण द्रव्य हैं और अपेक्षा-रहित किया गया प्रत्याख्यान भाव हैं। अपेक्षा चाविधिश्चैवा - परिणामस्तथैव च । प्रत्याख्यानस्य विघ्नास्तु, वीर्याभावस्तथापरः ॥२॥ अर्थ - १. अपेक्षा - आलोक-परलोक के सुख की इच्छा २. अविधिविधि का बिल्कुल अभाव ३. अपरिणाम - प्रत्याख्यान के परिणाम का अभाव (मुझे यह प्रत्याख्यान करना हैं, ऐसी अंतर की श्रद्धा का अभाव) ४. वीर्याभाव - वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम आदि से उत्पन्न हुए जीव परिणाम (वीर्योल्लास) का अभाव । ये चार भाव प्रत्याख्यान के विघ्न हैं, अर्थात् द्रव्य प्रत्याख्यान के कारण हैं। अपेक्षा आदि से किया गया प्रत्याख्यान द्रव्य प्रत्याख्यान हैं । लब्ध्याद्यपेक्षया ह्येत-दभव्यानामपि क्वचित् । श्रूयते न च तत्किञ्चि - दित्यपेक्षाऽत्र निन्दिता ॥३॥ अर्थ - भोजन, यश, पूजा, देवांगना आदि की अपेक्षा से कभी (यथाप्रवृत्तकरण द्वारा ग्रंथि-प्रदेश पर आता हैं तब)

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