Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 37
________________ ३६ श्री अष्टक प्रकरण को पीड़ा होने पर भी मन में दुःख नहीं होता, बल्कि बहुत बार आनंद होता हैं । उसी प्रकार तप से भाव आरोग्य की प्राप्ति होने से देहपीड़ा बाधक नहीं बनती, बल्कि आनंददायक होती हैं । दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडा ह्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥७॥ , अर्थ - क्या लोक में हम नहीं देखते कि, जौहरी आदि को रत्न का व्यापार वगैरह इष्टकार्य की सिद्धि होते ही व्यापार आदि में उत्पन्न श्रम, तृषा आदि से हुई देहपीड़ा मानसिक बाधा का जरा भी कारण नहीं बनती । वैसे ही तप के विषय में भी जानना । | विशिष्टज्ञानसंवेग शमसारमतस्तपः । क्षायोपशमिकं ज्ञेय - मव्याबाधसुखात्मकम् ॥८॥ अर्थ - तप, विशिष्ट प्रकार के (- सम्यग्दर्शन से युक्त ) ज्ञान, संवेग और शम इन तीनों से युक्त होने से क्षायोपशमिक - कर्म के क्षयोपशम रूप ( न कि कर्म के उदयरूप) और अव्याबाध सुख रूप ( न कि दुःख रूप) जानना चाहिए । 1

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