Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 46
________________ श्री अष्टक प्रकरण ४५ भोगाधिष्ठानविषयेऽप्यस्मिन् दोषोऽयमेव तु । तद्भेदादेव भोगोऽपि, निष्क्रियस्य कुतो भवेत् ॥७॥ अर्थ - भोगाधिष्ठान - शरीर को आश्रय कर जीव का, ऊर्ध्वगति आदि संसार हैं । ऐसा मान भी लें तो भी ये ही (पूर्व-कथीत) दोष विद्यमान हैं अर्थात् ऊर्ध्वगति आदि संसार काल्पनिक ही सिद्ध होता हैं । (आत्मा निष्क्रिय होने से इसका शरीर के साथ में संबंध नहीं होगा । यदि शरीर के साथ संबंध ही स्थापित नहीं होता तो शरीर को आश्रयकर जीव का वास्तविक संबंध भी कैसे स्थापित होगा?) दूसरा दूषण - विषयभोग भी एक प्रकार की क्रिया ही हैं। इससे निष्क्रिय आत्मा विषयभोग भी कैसे करेगी ? इस प्रकार आत्मा को नित्य मानने में शरीर-संबंध और भोग स्थापित नहीं होंगे। इष्यते चेत्क्रियाप्यस्य, सर्वमेवोपपद्यते । मुख्यवृत्त्यानघं किन्तु, परसिद्धान्त-संश्रयः ॥८॥ अर्थ - यदि आत्मा की क्रिया स्वीकार की जाये, अर्थात् आत्मा को सक्रिय माना जाए तो सभी हिंसा, अहिंसा, सत्य आदि, यमादि, अनुष्ठान, शरीरसंबंध, संसार, मोक्ष, भोग आदि परमार्थ से निर्दोषता से स्थापित होते हैं। किन्तु उसमें एक कठिनाई हैं ! उसमें उनको पर सिद्धांत का - जैनों के द्वारा स्वीकृत परिणामवाद का आश्रय लेना पड़ता हैं।

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