Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 87
________________ श्री अष्टक प्रकरण भोगने पडेंगे। तथा इस अनर्थ से लोगों के रक्षण करने की शक्ति होने पर भी उपेक्षा करना यह महापुरुषों के योग्य नहीं । इससे लोगों के (अनर्थ से रक्षण रूप) उपकार के लिए राज्यादि का प्रदान गुणकारी हैं । उसमें भी परहितपरायाण जगद्गुरु तीर्थंकर भगवंत को विशेष करके लाभदायी हैं । इस प्रकार विवाह आदि क्रिया और शिल्प के उपदेश में भी दोष नहीं हैं । कारण कि वैसा करने से ही उनका तीर्थंकर नामकर्म रूप उत्कृष्ट पुण्य विपाक (उदय) को प्राप्त होता हैं। किञ्चेहाऽथिकदोषेभ्यः, सत्त्वानां रक्षणं तु यत् । उपकारस्तदेवैषां, प्रवृत्त्यङ्गं तथास्य च ॥६॥ अर्थ – तथा प्रस्तुत में (राज्यदान, विवाहादि-क्रिया तथा शिल्प आदि का उपदेश) अधिक दोषों से जीवों का रक्षण यही भगवान का लोगों पर उपकार हैं और यही तीर्थंकर की राज्यप्रदानादि-प्रवृत्ति का कारण हैं । अर्थात् अधिक दोषों से जीवों का रक्षण करने के लिए ही तीर्थंकर राज्यप्रदान आदि की प्रवृत्ति करते हैं । नागादे रक्षणं यद्वद्, गर्ताद्याकर्षणेन तु । कुर्वन्न दोषवांस्तद्वदन्यथाऽसम्भवादयम् ॥७॥ अर्थ - गड्ढे में से खींचकर सर्प आदि से पुत्रादि का रक्षण करनेवाला दोष का पात्र नहीं हैं, वैसे ही अन्य किसी

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