Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 88
________________ श्री अष्टक प्रकरण ८७ भी प्रकार के महाअनर्थ से रक्षण का असंभव होने से राज्यप्रदानादि-प्रवृत्ति करनेवाले तीर्थंकर भी दोषी नहीं हैं। इत्थं चैतदिहैष्टव्य - मन्यथा देशनाप्यलम् । कुधर्मादिनिमित्तत्वाद, दोषायैव प्रसज्यते ॥८॥ अर्थ - तीर्थंकर की राज्यप्रदान आदि प्रवृत्ति बहुत अनर्थों से बचानेवाली होने के कारण निर्दोष हैं, ऐसा मानना ही उचित हैं । अन्यथा भगवान की देशना भी कुधर्मों में निमित्त बनने से अत्यंत दोष के लिए होगी ।

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