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श्री अष्टक प्रकरण
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अर्थ - शुभ आशय को उत्पन्न करता हैं, लक्ष्मी के ममत्व का नाश करता हैं, अनुबंधयुक्त कल्याण का प्रधान कारण हैं तथा अनुकंपा दया से उत्पन्न होता हैं, इसीलिए दान धर्म का अंग हैं ।
ज्ञापकं चात्र भगवान्, निष्क्रान्तोऽपि द्विजन्मने । देवदूष्यं ददद् धीमा - ननुकम्पाविशेषतः ॥५॥
अर्थ - साधुता में होने पर भी अतिशय दया से ब्राह्मण को देवदूष्य देनेवाले चार ज्ञान के मालिक भगवान महावीर (विशिष्ट संयोग उपस्थित होने पर साधु को भी अनुकंपा दान करना चाहिए) इस विषय में दृष्टांत रूप हैं।
इत्थमाशयभेदेन नातोऽधिकरणं मतम् ।
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अपि त्वन्यद् गुणस्थानं, गुणान्तरनिबन्धनम् ॥६॥ अर्थ - विशिष्ट संयोगों में विशिष्ट (यह बेचारा कर्म के कीचड़ से छूटकर दुःख से संपूर्ण मुक्त हो इत्यादि) अनुकंपा होने से असंयतदान से अधिकरण (पाप - प्रवृत्ति) होता हैं, ऐसा विद्वान नहीं मानते, किन्तु सर्वविरति आदि गुणों की प्राप्ति में कारण अविरति सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानक की प्राप्ति होती हैं, ऐसा मानते हैं ।
ये तु दानं प्रशंसन्ती त्यादि सूत्रं तु यत्स्मृतम् । अवस्थाभेदविषयं द्रष्टव्यं तन्महात्मभिः ॥७॥
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