Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 86
________________ श्री अष्टक प्रकरण २८. अथ राज्यादिदानदूषणनिवारणाष्टकम् अन्यस्त्याहास्य राज्यादि - प्रदाने दोष एव तु । महाधिकरणत्वेन, तत्त्वमार्गेऽविचक्षणः ॥१॥ अर्थ - तात्त्विक मार्ग में अज्ञान अन्य कोई वादी कहता हैं कि - राज्यादि महान अधिकरण (पाप का कारण) होने से तीर्थंकर स्वपुत्रादि को राज्यादि देते हैं, इसमें दोष हैं। अप्रदाने हि राज्यस्य, नायकाभावतो जनाः । मिथो वै कालदोषेण, मर्यादाभेदकारिणः ॥२॥ विनश्यन्त्यधिकं यस्मा - दिह लोके परत्र च । शक्तौ सत्यामुपेक्षा च, युज्यते न महात्मनः ॥३॥ तस्मात्तदुपकाराय, तत्प्रदानं गुणावहम् । परार्थदीक्षितस्याऽस्य, विशेषेण जगद्गुरोः ॥४॥ एवं विवाहधर्मादौ, तथा शिल्पनिरूपणे । न दोषो ह्युतमं पुण्य - मित्थमेव विपच्यते ॥५॥ अर्थ - राज्य दूसरे को न दे तो निर्णायक बने लोग कालदोष से मर्यादा का भंग करेंगे । परिणाम इस लोक में प्राणनाश होगा अथवा लुटपाट आदि से परेशान होंगे और परलोक में, इस लोक में हिंसा, असत्य, परधन हरण, परदारागमन आदि किये गये पापों के कटु फल

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