Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 58
________________ श्री अष्टक प्रकरण ५७ यथाविधि नियुक्तस्तु, यो मांसं नात्ति वै द्विजः । " स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम् ॥७॥ अर्थ - श्राद्ध और मधुपर्क में विधिपूर्वक जुड़ा हुआ जो ब्राह्मण मांस का भक्षण नहीं करता, वह भवांतर में इक्कीस बार पशु रूप में उत्पन्न होता हैं । पारिव्राज्यं निवृत्तिश्चेद्, यस्तदप्रतिपत्तितः । फलाभावः स एवास्य, दोषो निर्दोषतैव न ॥८॥ अर्थ अब यदि प्रव्रज्या की अपेक्षा से मांसभक्षण से निवृत्ति हैं, अर्थात् जो प्रव्रज्या स्वीकार करे उसकी, वेदविहित मांसभक्षण से भी निवृत्ति होती हैं । अब प्रव्रजित की अपेक्षा से "निवृत्तिस्तु महाफला " यह वचन संगत हैं । गृहस्थावस्था में वेदविहिति मांसभक्षण की प्रवृत्ति थी । प्रव्रज्या लेने के बाद मांसभक्षण से निवृत्ति कराने के लिए " निवृत्तिस्तु महाफला " यह वचन संगत हैं । ―—

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