Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 64
________________ श्री अष्टक प्रकरण ६३ ठीक नहीं । कारण कि वेद पढ़कर स्नान करे, इस वाक्य का वेद पढ़कर ही स्नान करे ऐसा अर्थ किया हैं । अर्थात् अर्थापत्ति प्रमाण से मैथुन दोषयुक्त हैं, ऐसा सिद्ध होता हैं । अर्थापत्ति से दूषित सिद्ध हुए मैथुन में दोषाभाव कहनेवाले 'न च मैथुने' इस अप्रमाणभूत वचन से मैथुन को निर्दोष कैसे मान सकते हैं ? और प्रशंसा किस प्रकार हो ? तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात्, त्याज्यबुद्धेरसम्भवात् । विद्युक्तेरिष्टसंसिद्धे - रुक्तिरेषा न भद्रिका ॥ ६ ॥ अर्थ - न च मैथुने अर्थात् मैथुन में दोष नहीं हैं । यह वचन अप्रमाणिक हैं, कारण कि दूषित मैथुन में प्रवृत्ति कराने का कारण हैं, मैथुन दूषित होने से त्याज्य हैं, ऐसा ज्ञान न होने से (उल्टा अन्य कर्तव्य अनुष्ठानों के समान) मैथुन अनुष्ठान (विधेय) हैं ऐसा कहने से, लोगों को 'इष्ट था और वैद्य ने कहा' उस प्रकार इष्ट की सिद्धि होने के कारण यह उक्ति कल्याणकारक नहीं है । प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिकातप्तकणक प्रवेश - ज्ञाततस्तथा ॥ ७ ॥ अर्थ - श्री महावीर स्वामी आदि महर्षियों ने मैथुन जीवों का नाश करनेवाला हैं, इस प्रकार शास्त्र (भगवती) में नली के दृष्टांत से कहा हैं । रूई से भरी हुई नली में अग्नि से धधकते हुए लोहे की छड़ का प्रक्षेप किया जाए तो जैसे —

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