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श्री अष्टक प्रकरण
न मोहोद्रिक्तताऽऽभावे, स्वाग्रहो जायते क्वचित् । गुणवत्पारतन्त्र्यं हि, तदनुत्कर्षसाधनम् ॥४॥ अत एव आगमज्ञोऽपि, दीक्षादानादिषु ध्रुवम् । क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह, सर्वेषु कर्मसु ॥५॥
अर्थ - रागादि की मंदता में स्वाग्रह कभी भी नहीं होता तथा गुणवान के आधीन रहने से रागादि की मंदता होती हैं । इसीलिए आगमज्ञाता भी प्रव्रज्याप्रदान आदि सर्व कार्यों में 'क्षमाश्रमण हस्तेन' ऐसा अवश्य कहते हैं । अर्थात् मैं यहाँ सर्वविरति आरोपण आदि जो कुछ करता हूँ वह क्षमाश्रमण - पूर्व महापुरुषों के हाथों से करता हूँ, ऐसा अवश्य कहते हैं।
इदं तु यस्य नास्त्येव, स नोपायेऽपि वर्तते । भावशुद्धेः स्वपरयो - गुणाद्यज्ञस्य सा कुतः ॥६॥
अर्थ - जो गुणवान के अधीन ही नहीं, वह भावशुद्धि के उपाय भी नहीं करता तथा अपने गुण-दोषों से और पर के गुणों से अज्ञात हैं । अन्यथा गुणवान के अधीन क्यों न बने ? इससे उसकी भावशुद्धि कहाँ से होगी ?
तस्मादासन्नभव्यस्य, प्रकृत्या शुद्धचेतसः । स्थानमानान्तरज्ञस्य, गुणवद्बहुमानिनः ॥७॥
औचित्येन प्रवृत्तस्य, कुग्रहत्यागतो भृशम् । सर्वात्राऽऽगमनिष्ठस्य, भावशुद्धिर्यथोदिता ॥८॥