Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 38
________________ श्री अष्टक प्रकरण ३७ १२. अथ वादाष्टकम् शुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथापरः । इत्येष त्रिविधो वादः, कीर्तितः परमर्षिभिः ॥१॥ अर्थ - महर्षिओं ने वाद के तीन प्रकार कहे हैं । १. शुष्कवाद २. विवाद ३. और धर्मवाद ।। अत्यन्तमानिना सार्धं, क्रूरचित्तेन च दृढम् । धर्मद्विष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥ अर्थ - अतिशय गर्विष्ठ, अतिक्रूर, जैन धर्म-द्वेषी और मूढ इन चार प्रकार के वादियों में से किसी भी प्रकार के वादी के साथ तपस्वीसाधु का वाद शुष्कवाद-अनर्थवाद हैं। विजयेऽस्यातिपातादि, लाघवं तत्पराजयात् । धर्मस्येति द्विधाप्येष, तत्त्वतोऽनर्थवर्धनः ॥३॥ अर्थ - अतिगर्विष्ठ आदि प्रतिवादी के साथ वाद करने में साधु की विजय हो तो प्रतिवादी का मरण, चित्तभ्रम, वैरानुबंध, अशुभ कर्मबंध, संसार-परिभ्रमण आदि अनर्थ होते हैं अथवा साधु के साथ वैरानुबंध होने से प्रतिवादी साधु के प्राण-हरण इत्यादि अनर्थ होते हैं । यदि प्रतिवादी से साधु की पराजय हो जाये तो जिनप्रवचन की लघुता होती हैं । इस प्रकार शुष्कवाद उभय रीति (जय अथवा पराजय) से परमार्थ से अनर्थ की वृद्धि करता हैं ।

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