Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 35
________________ ३४ श्री अष्टक प्रकरण ११. अथ तपोऽष्टकम् दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते तन्न युक्तिमत् । कर्मोदयस्वरूपत्वाद्, बलीवर्दादिदुःखवत् ॥१॥ सर्व एव च दुःख्येव, तपस्वी सम्प्रसज्यते । विशिष्टस्तद्विशेषेण, सुधनेन धनी यथा ॥२॥ महातपस्विनश्चैवं, त्वन्नीत्या नारकादयः । शमसौख्यप्रधानत्वाद्, योगिनस्त्वतपस्विनः ॥३॥ युक्त्यागमबहिर्भूत-मतस्त्याज्यमिदं बुधैः । अशस्तध्यानजननात्, प्राय आत्माऽपकारकम् ॥४॥ अर्थ - कितने ही (बौद्ध) मानते हैं कि - तप दुःख स्वरूप हैं । तप को मोक्ष का कारण मानना यह युक्तियुक्त नहीं हैं। कारण कि तप दुःख रूप होने से, बैल आदि के दुःख के समान कर्म के उदय स्वरूप हैं। अर्थात् जैसे बैल आदि को दुःख कर्म के उदय से होता हैं, वैसे दुःख रूप तप भी कर्म के उदय से होता हैं । जो कर्म के उदय स्वरूप हो वह मोक्ष का कारण नहीं बनता । दुःख रूप तप को मोक्ष का कारण स्वीकारे तो (दुःख को ही तप रूप मानने से) सभी दुःखी जीव तपस्वी कहे जायेंगे । तथा जो ज्यादा दुःखी वह विशिष्ट तपस्वी कहा जायगा । जैसे धनवान अधिक धन से महान धनी कहा जाता हैं।

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