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श्री अष्टक प्रकरण
१४. अथ एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्
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तत्रात्मा नित्य एवेति, येषामेकान्तदर्शनम् । हिंसादयः कथं तेषां, युज्यन्ते मुख्यवृत्तितः ॥१॥
अर्थ जिनका ‘आत्मा नित्य ही हैं' इस प्रकार एकांतदर्शन हैं, उनकी दृष्टि से हिंसा आदि परमार्थ से कैसे माने जाएँगे ? नहीं माने जाएँगे ।
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निष्क्रियोऽसौ ततो हन्ति, हन्यते वा न जातुचित् । कञ्चित्केनचिदित्येवं, न हिंसाऽस्योपपद्यते ॥२॥
अर्थ - आत्मा एकांत से नित्य होने से निष्क्रिय - सर्व प्रकार की क्रियाओं से रहित हैं । निष्क्रिय होने से वह कभी भी अन्य किसी का घात नहीं करती । तथा (सभी आत्माएँ निष्क्रिय होने से या स्वयं नित्य होने से) अन्य किसी से कभी भी उसका घात नहीं होता । इस प्रकार सर्वथा नित्य आत्मा की हिंसा नहीं मानी जाती ।
अभावेसर्वथैतस्या, अहिंसापि न तत्त्वतः । सत्यादीन्यपि सर्वाणि, नाहिंसासाधनत्वतः ॥३॥
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अर्थ - हिंसा का अभाव होने से अहिंसा भी परमार्थ से नहीं मानी जाती । अहिंसा के अभाव में सत्य आदि भी नहीं माने जाते कारण कि सत्य आदि अहिंसा के साधन हैं अहिंसा के पालन के लिए हैं ।
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