Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ १४ श्री अष्टक प्रकरण पापं च राज्यसम्पत्सु, सम्भवत्यनधं ततः । न तद्धत्वोरुपादान - मिति सम्पग्विचिन्त्यताम् ॥४॥ _अर्थ - राज्य और संपत्ति से पाप लगता हैं । अतः साधु को राज्य और संपत्ति देने वाली पूजा और अग्निकारिका का सेवन नहीं करना चाहिए । यह बात मुमुक्षुओं के द्वारा सम्यग् विचारणीय हैं। विशुद्धिश्चास्य तपसा, न तु दानादिनैव यत् । तदियं नान्यथा युक्ता, तथा चोक्तं महात्मना ॥५॥ अर्थ - राज्य और संपत्ति से लगे हुए पाप की शुद्धि तप से ही होती हैं, न कि दान आदि से, अत: मुमुक्षुओं को द्रव्य अग्निकारिका युक्त नहीं हैं । अर्थात् प्रथम पूजा - अग्निकारिका से राज्य और संपत्ति प्राप्तकर उनसे पाप करना, उसके बाद उस पाप की शुद्धि के लिए तप का सेवन करना । इससे बहेतर हैं कि राज्य और संपत्ति देनेवाली द्रव्य पूजा और द्रव्य अग्निकारिका का त्याग करना चाहिए । यही बात महात्मा व्यास ने भी कही हैं । धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥६॥ अर्थ - जो व्यक्ति धर्म के लिए धन प्राप्त करता हैं, इससे तो धन प्राप्त नहीं करना ही श्रेष्ठ हैं । प्रथम शरीर को कीचड़ से गंदा करना, बाद में पानी से धोना, इससे तो करन

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